Published On: Sat, Jul 30th, 2016

यदि सब मिथ्या और माया है तो परिश्रम करने से क्या लाभ?  

Rajiv Malhotraएकात्मकता (Oneness), सब समान है, कोई अंतर नहीं है, आदि, यह बातें किस स्तर पर सही हैं? यह उस स्तर की बातें हैं, जब हम चेतना के अलग ही धरातल पर होते हैं।

इस धरातल पर कोई देवता नहीं है और कोई असुर नहीं है। उस धरातल पर कोई महाभारत नहीं हो रहा है। वहां किसी भी तरह की नैतिक दुविधा (धर्मसंकट) भी नहीं है।

मगर जिस स्तर पर हम अभी हैं, जिस संसार में हम अभी है, वहां द्वैतवाद है (Duality is there)। वहां कर्म का महत्व है, और उसकी जवाबदेही भी आवश्यक है। वहां धार्मिक कर्म भी है और अधार्मिक कर्म भी है।

मिथ्या, माया, इन शब्दों से हम अकर्मण्य (आलसी) हो सकते हैं। १८ वीं (18th) और १९ वीं (19th) शताब्दी में बाहरी आक्रान्ताओं ने हमें यही “ज्ञान” दिया है ताकि हिन्दू प्रतिरोध खत्म हो जाये (इन लोगों में राजा राम मोहन रॉय का भी स्थान है)। जब सब समान ही है, कोई (यानी अंग्रेज़) मेरी ज़मीन ले ले, या मेरी ज़मीन मेरे पास रहे, सब एक ही है। कोई (चाहे वो विदेशी क्यों न हो) शासन करे, क्या फर्क पड़ता है?

इस तरह के प्रचार से नैतिक सापेक्षवाद (Moral Relativism) और संसार के प्रति उदासीनता (World Negation) को बढ़ावा मिलता है और हम पलायनवाद की विचारधारा को मानने लगते हैं।

इसलिए अगर हम यथार्थ में जी रहे हैं, तो हमें अनुभव को महत्व देना पड़ेगा और उससे सीखना होगा। समझो आप एक विद्यार्थी हो। विद्यार्थी के रूप में आपके क्या अंक आयेंगे, इसके लिए आपका चिंतित होना स्वाभाविक है। ऐसा मान लो कि आपके ख़राब नंबर आये, और दूसरे लड़के के अच्छे नंबर आये। आपका कॉलेज में दाखिला नहीं हुआ और उसका हो गया। तो क्या तब भी आप कहेंगे कि सब बराबर ही है, एक ही बात है? सब मिथ्या है!! अगर आप एक कार खरीद रहे हैं, तो कोई आपसे ५०००० रूपए ज्यादा मांग ले तो क्या अंतर पड़ता है? चाहे वो ५० हज़ार आपकी जेब में हों या उसकी जेब में हों, क्या फर्क पड़ता है? सब माया है !!

अब मैं आपको भारतीयों के बारे में एक और महत्वपूर्ण बात बताने जा रहा हूँ ।

जहाँ अपना मतलब हो, जहाँ अपना फायदा हो, वहां तो सौदेबाजी करने में भारतीय सबसे आगे हैं। उन्हें सबसे बढ़िया नौकरी चाहिए, मकान खरीदने के लिए वे सबसे कम कीमत पता लगा लेंगे, अपनी नौकरी में उन्हें तरक्की भी चाहिए। जहाँ तक बात हो “मेरी” और “उसमे मेरा क्या फायदा है?”, तो उसमे भारतीय बहुत स्पर्धात्मक (competitive) हैं। वहां पर अपनी अलग पहचान का पूरा बोध रहता है। यह “मेरी” कंपनी है और यह वाली दूसरे की कंपनी है; “मुझे” ज्यादा मार्किट शेयर चाहिए। यह “मेरा” मकान है, यह “मेरी” फॅमिली है, और मैं अपने लोगों के लिए ज्यादा से ज्यादा फायदा चाहता हूँ। जहाँ अपना स्वार्थ है, वहां तो हमें अपनी अलग पहचान खूब याद रहती है। लेकिन जब धर्म की बात आती है, वहां मैं कुछ ज्यादा नहीं करना चाहता। वहां मैं समानता की बात करने लगता हूँ।

इसलिए जब कोई भी कहता है कि मैं एक ऐसे धर्म का पक्षधर हूँ जहाँ सभी समान हो, मैं उनसे कहता हूँ कि पहले आप अपनी पहचान छोड़कर, सब कुछ त्यागकर सन्यास ग्रहण करें।

यह सुनते ही उनका समानता का भूत उतर जाता है ।

ज़रा दूसरे धरातल की भी बात समझ ले। यह समझना बहुत ज़रूरी है कि हमारे धर्म में एक आध्यात्मिक संसार है जहाँ हम “स्व” के पार जाना चाहते हैं। धीरे धीरे मैं सभी पहचानों से अपने को दूर कर लेता हूँ। अंततोगत्वा मैं “राजीव” नहीं हूँ, किसी का बेटा नहीं हूँ, किसी का पिता नहीं हूँ, मैं सिर्फ यह शरीर नहीं हूँ। इस तरह जब मैं उस “स्व” के पार जाता हूँ, तब मैं मोक्ष को प्राप्त कर पाता हूँ।

यह समझने के बाद अब हमें यह समझना है कि अभी हम लौकिक संसार में हैं। हम मूलतः एक आध्यात्मिक जीव हैं जिसे लौकिक संसार में रख दिया गया है। जब हम यहाँ हैं तो हमें इस कुरुक्षेत्र के, इस वक्त के, इस स्थान, इस संदर्भ के अनुसार रहना पड़ेगा। इसीलिए जहाँ एक तरफ अपनेआप को पहचानने की खोज जारी रखनी है, वहीँ दूसरी तरफ इस लौकिक संसार में जो दायित्व है उसे भी हमें निभाना है।

मेरी सही पहचान वो परम तत्व ही है, इसमें कोई दो राय नहीं, लेकिन मुझे इस लौकिक संसार में राजीव होने की एक लीला करनी है (have to do a role play)।मुझे, अपना वो परम स्वरुप ध्यान में रखते हुए, मुझे राजीव का पात्र अदा करना है। ऐसा समझो कि एक लीला चल रही है, और मुझे एक क्रिकेट खिलाडी या एक अभिनेता या एक भिखारी का पात्र निभाना है। मैं जानता हूँ कि मैं अभिनय कर रहा हूँ, यह एक लीला है, मैं वास्तव में कुछ और हूँ, मगर मुझे अपना सबसे अच्छा अभिनय करना है।

इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि इस महत्वपूर्ण बात को समझा जाये कि जहाँ एक तरफ मुझे उस आंतरिक खोज को जारी रखना है मगर साथ ही साथ मैं मैं “राजीव” होने की ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकता। आंतरिक खोज का मतलब यह नहीं कि मैं इस बाहरी ज़िम्मेदारी से भाग जाऊं।

जब इस लौकिक संसार में मुझे अपना भाग अदा करना है तो यह बड़ा ज़रूरी है कि मैं यह समझूं कि आज के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवेश में, हमारी क्या पहचान है। हिन्दू होने का मतलब यह नहीं है कि हमारी इस भौतिक जगत में कोई पहचान नहीं है या असली पहचान कुछ और है जिसे समझना मुश्किल है। हर हिन्दू को एक भाग अभिनीत करना है (role play करना है) और अपनी ज़िम्मेदारी निभानी है।

यह एक भ्रान्ति है जो दुर्भाग्य से हमारे कई प्रबुद्ध लोगों ने भी प्रसारित की है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वे आध्यात्मिक विद्या (जो आप अपने व्यक्तिगत स्तर पर सीखें) और लौकिक विद्या (इस संसार में रहने की कला) में अंतर नहीं कर पाए।

हम स्पष्ट रहे: अभी जो हमारा विचार विमर्श हो रहा है वो लौकिक जगत के सम्बन्ध में हो रहा है। इस जगत में एक पहचान (identity) होती ही है। इस लौकिक जगत में हमें यह समझना है कि हमें लीला किस तरह से करनी है और यहाँ भौतिक जगत किस स्तर पर कार्य करता है।

इस परम एहसास के साथ – कि मैं एक परम तत्व हूँ जो न कभी जन्मता है और न कभी मरता है और मेरी कोई स्थायी पहचान नहीं है – यह जानते हुए मुझे अपनी लीला करनी है, अपना भाग इस सीमित परिवेश में निभाना है।

(श्री राजीव मल्होत्रा के व्याख्यान से)